Monday, November 28, 2011

नफ़रत..

नफ़रत..
तकदीर का फैसला आया ?
नहीं जनाब...कैद तकदीर आज़ाद तो नहीं हुई .एक उम्मीद का धागा था टूट गया. 
मतलब उच्च-प्रबंधन ने तुम्हारी गुहार नहीं सुनी .
जी .... सर्वहारा की कौन  सुनता है . सुना गया होता  तो  हक़ मिला होता . आज कंडे से आंसू पोंछता.योग्यता का क़त्ल होता .भय,भूख,गरीबी का तांडव होता .सर्वहारा को मरते सपनों की शव यात्रा खुद के कंधे पर लेकर चलना होता .
मतलब तुम्हारे  कैरिअर के क़त्ल पर आखिरी  मोहर लग गयी .
क्या नसीब हो गयी है जनाब .
सच जख्म भर ही नहीं पा रहे है नफ़रत भरी दुनिया में . नन्द लाल भारती  २९.११.2011


 

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