Friday, March 21, 2014

मौन मुहर /लघुकथा

मौन मुहर /लघुकथा
कल दफ्तर खुलेगा अटलेश्वर .
नई बात क्या कागज में तो हर छुट्टी के दिन दफ्तर खुलता है।
तुमको आना है।
क्यों.....?
निवार्चन अधिकारी की पाती आ चुकी है।
सिर्फ हमारे लिए तो आयी नहीं होगी।
तुम्हारी भी तो ड्यूटी लगी है . .
ड्यूटी लगने का ये तो मतलब नहीं कि पेट में भूख और पीठ पर घाव का बोझ लेकर छुट्टियो के दिन ड्यूटी करू ,हमारा भी घर परिवार है हैम भी नौकरी कर रहे है मेरे साथ अन्याय क्यों ?
छुट्टी के दिन भी ड्यूटी करना पडेगा।
आंसू पीकर। वो लोग कहाँ गए जो हर छुट्टी के दिन कागजी ड्यूटी और कागजी दौरा कर मोटी कमाई करते हैं ,विभागीय संसाधनो का भरपूर उपभोग भी। मैं ही क्यों कसाई के खूंटे पर बंधी गाय साहब ?
अटलेश्वर का दो टूक जबाब सुनकर एक मिनट के लिए स्व जातीय पक्षपात की विषबेल रोपने वालो की जीभ तालु में सट गयी पर दूसरे पल लग गयी देख लेने की मौन मुहर भी ।
डॉ नन्द लाल भारती 22 मार्च 2014

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