Wednesday, April 2, 2014

संतोष की जड़/लघुकथा

संतोष की  जड़/लघुकथा
बुध्देश्वर आतंकित  क्यों कौन सी डर तुमको खाये जा रही है।
सिध्देश्वर क्यों न डर  लगे  वहाँ  जहां सामंतवाद- वंशवाद को  प्रोत्साहन और दमित का  दमन हो रहा हो ।
अभी तक सामंतवादी अफसरशाही का मन परिवर्तन नहीं हुआ क्या ?
कैसे कहूँ मेरे साथ तो कुछ अच्छा  नहीं हुआ जीवन के बावन वसंत तो बित चुके . आधे से अधिक कंपनी की  सेवा में पर आज भी वही दर्जा। लोगो का व्यवहार तो हाथी के दांत दिखाने के और खाने के और है।
समझ गया तभी सामंतवादी प्रबंधन ने योग्यतानुसार पदोन्नति से वंचित हाशिये का आदमी बना कर रखा है । देख लिया  सुन और समझ भी लिया।
कैसे सिध्देश्वर   ?
दफ़तर की ड्योढ़ी चढ़ते ही वैसे भी सामंतवादी जहर की तासिर से वाकिब हूँ। बबूल के पेड़ की छांव होती है दमितों के लिए सामंतवादी हुकूमत और वही अभी यहाँ लागू है।कंपनी  के उद्देश्य समभाव के तो है पर सामंतवादी विषबेल रोप रखे है जिसकी वजह से तुम कराहे जा रहे हो।
सामंतवाद का  दर्द  अब  बर्दाश्त नहीं होता पर करे क्या ?
रावण को भी इस जहां से   रो-रो कर जाना  पड़ा है,विज्ञानं के युग में विष बो कर कब तक भय पैदा करेगे सामंतवादी। प्यारे    तुम्हारी चिंता जायज है पर तुम अपनी शक्ति का सम्मान करो बुध्देश्वर।
वही कर रहा हूँ तभी तो अस्तित्व है वरना ये  दमनकर्ता  नेस्तानाबूत कर दिए होते सिध्देश्वरबाबू
कलम में बहुत शक्ति है.टिके रहो संतोष की  जड़ पाताल जाती है बुध्देश्वर।
डॉ नन्द लाल भारती
   02
अप्रैल 2014

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