Saturday, May 25, 2013

परायाघर /लघुकथा

परायाघर /लघुकथा
चार वर्षीय सानु को दुलारते हुए नरेन्द्र पुछा बेटा घर में सब ठीक है .
सानु -बेटा नहीं बेटी दादा .
क्य………?
हाँ दादा मैं लड़की हूँ .
नरेन्द्र माथा ठोंक बैठा .
गीता-बेटी तुम्हारा घर कहाँ है ?
पता नहीं दादी .
हरदा किसका घर है .
भईया का .
साल भर के भईया का घर है तुम्हारा नहीं .
नही …….दादी मुझे तो परायेघर जाना है ना .
बाप रे इतना बड़ा बंटवारा नन्ही सी उम्र में कहते हुए गीता कुर्सी में धंस गयी फिर संभल कर बोली परायेपन का विचार  नन्ही सी बच्ची के मन में कैसे आया होगा अभी से .
पारिवारिक परिवेश ,सामजिक रुढिवादिता और माँ बाप के अंधेपन से नरेन्द्र बोला .
अंधेपन का इलाज क्या है गीता बोली ?
स्व-धर्मी समानता एंव नातेदारी कहते हुए नरेन्द्र सानु के सर पर हाथ फेरते हुए बोल बेटी लड़का-लड़की एक सामान है .दोने जीवन की पहचान है .
गीता-सत्य तो यही है पर सामाजिक रुढिवादिता और पारिवारिक अंधापन कहा मानता है .

डॉ नन्द लाल भारती 26.05.2013

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